चंबा का मिंजर मेला: सुख-समृद्धि, प्रेम और भाईचारे का उत्सव

चंबा।। हिमाचल प्रदेश अपने मेलों और त्योहारों के लिए भी पहचाना जाता है। इन्हीं मेलों में से एक है चंबा का मिंजर मेला, जिसका हर साल लोग बेसब्री से इंतजार करते हैं। रविवार से इस मेले का आगाज हो गया है। यह मेला बहुत खास है क्योंकि यह कई सालों से हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक भी बना हुआ है। वैसे माना जाता है कि इस फसल का संबंध मक्की की फसल से रहा था क्योंकि इलाके के लोग मक्की का व्यापक स्तर पर उत्पादन करते थे और उस फसल के अच्छी रहने के लिए पूजा अर्चना करते थे। जानें, क्या हैं इस मेले से जुड़ी दंतकथाएं और कैसे मनाया जाता है मेला:

मिंजर क्या है?
मक्की, गेहूं, धान और जौ आदि की बालियों को स्थानीय लोग मिंजर कहते हैं। तो मिंजर मेले के दौरान जरी या गोटे से बनाई गई मिंजर को कमीज के बटन पर लगाया जाता है और मेले के दौरान पहना जाता है। आखिर में मेले के समापन पर इसे रावी नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। मिंजर का आदान-प्रदान करना शुभ माना जाता है और इसे समृद्धि का प्रतीक समझा जाता है।

मेले की शुरुआत को लेकर हैं कई कहानियां
मिंजर मेला क्यों मनाया जाता है, इसकी शुरुआत कैसे हुई, इसे लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं। एक मान्यता तो यह है कि 10वीं सदी में रावी नदी चंबा से होकर बहती थी। यहां पर नदी के दाएं छोर पर चंपावती मंदिर था और बाएं किनारे पर हरिराय मंदिर। उस दौर में चंपावती मंदिर में एक संत रहते थे और वह हर सुबह हरिराय मंदिर की पूजा अर्चना करने नदी पार करके दूसरे किनारे में जाते थे।

चंबा के राजा और चंबा में रहने वालों ने इन संत से गुजारिश की कि कुछ ऐसी व्यवस्था कीजिए कि हर कोई हरिराय मंदिर के दर्शन आसानी से कर सके। कहते हैं कि संत ने राजा और प्रजा को चंपावती मंदिर में इकट्ठा होने को कहा। बताते हैं कि 7 दिन तक बनारस के ब्राह्मणों ने यज्ञ का आयोजन किया। इस दौरान ब्राह्मणों ने सात रंगों की रस्सी बनाई जिसे मिंजर नाम दिया गया। यज्ञ पूरा होते ही रावी नदी उफान पर आई और उसने अपना रास्ता बदल लिया। अब हरिराय मंदिर तक जाना भी आसान हो गया।

एक अन्य दंतकथा ऐसी है कि चंबा के राजा साहिल बर्मन जब कांगड़ा के राजा को पराजित करके लौट रहे थे तो नलोहरा पुल पर स्थानीय लोगों ने मक्की की मिंजर के साथ उनका भव्य स्वागत किया था। ऐसे में हर साल इसी याद में मिंजर मेला मनाया जाने लगा। कुछ लोग इस मेले को वरुण देवता के लिए समर्पित उत्सव के तौर भी मानते हैं। मगर इस मेले से जुड़ी एक खास रस्म पर ध्यान दें तो एक नई कहानी मालूम होती है।

भगवान रघुवीर को लेकर भी है एक कथा
दंतकथाओं के अनुसार 17वीं सदी की बात है। शाहजहां ने एक प्रतियोगिता का आयोजन किया जिसमें हिस्सा लेने के लिए चंबा के राजा पृथ्वी सिंह भी पहुंचे। वह विजयी रहे और पुरस्कार के तौर पर उन्होंने भगवान रघुवीर की प्रतिमा मांग ली। दिल्ली के शासकों ने उन्हें यह भेंट कर दी।

बताते हैं कि चंबा के राजा जब भगवान रघुवीर को यहां लेकर आए तो उनके साथ सफी बेग मिर्जा को भी भेजा गया। मिर्जा जरी-गोटे के काम में माहिर थे और उन्होंने जरी से मिंजर बनाकर रघुवीर जी, लक्ष्मी नारायण और राजा पृथ्वी सिंह को भेंट किया। और तब से लेकर आज तक 300 साल से ज्यादा का वक्त गुजर गया है लेकिन इसी परिवार के वंशज (परिवार का मुखिया) आज सबसे पहले रघुवीर जी को जरी गोटे से बनी मिंजर अर्पित करते हैं और तभी मेले की शुरुआत होती है।

इस परिवार के सदस्य मिंजर करीब आते ही मिंजर बनाने लग जाते हैं। आज भी इस काम में परिवार की तीन पीढ़ियां जुटी हुई हैं। इनके द्वारा बनाई गई मिंजर ही मेले के दौरान बाजार में बिकती हैं और उन्हें बहनें अपने भाइयों की रक्षा के लिए बांधती हैं। लोग एक दूसरे को भी मिंजर देते हैं।

मेले का आगाज और समापन
मिंजर मेला जुलाई माह के आखिरी रविवार से शुरू होता है और एक हफ्ते तक चलता है। इसे चंबा के ऐतिहासिक चौहान मैदान में नाया जाता है। इस दौरान लक्ष्मी-नारायण मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है। कुंजरी-मल्हार गाए जाते हैं। मिंजर विसर्जन इस त्योहार की महत्वपूर्ण रस्म है और इसके साथ ही मेले का समापन होता है। ऐसा करने से पहले चंबा के राजा के अखंड चंडी महल में स्थित भगवान रघुवीर के मंदिर से शोभा यात्रा निकाली जाती है। साथ में अन्य देवी-देवताओं की पालकियां भी चलती हैं।

समापन समारोह के मुख्य अतिथि मंत्रोच्चारण के बीच मिंजर, एक रुपया, नारियल, दूब और फूल को नदी में प्रवाहित करते हुए उन्हें वरुण देवता को अर्पित करते हैं। इसी के साथ मिंजर मेला समाप्त हो जाता है। देवी-देवताओं की प्रतिमाओं और शाही ध्वज को वापस महल में ले जाया जाता है। इसके बाद फिर इंतजार शुरू होता है अगले साल का।

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