कौन था बरोट-जोगिंदर नगर के बीच की पहाड़ी पर फंसे दोस्तों को बचाने वाला बुजुर्ग?

प्रस्तावना: पहाड़ों में हमेशा से आबादी कम रही है। पहले तो सड़कें भी नहीं होती थी और लाइट भी नहीं। इसलिए दूर-दूर बसे गांवों के बीच रात को आना-जाना आसान नहीं था। इसलिए जब कभी लोगों को आना जाना पड़ता था तो बचपन में सुने हुए कई डरावने किस्से-कहानियों का डर कभी पेड़ों की परछाइयों में दिखने लगता था तो कभी झाड़ियों में रहने वाले जीवों की आवाज़ में। और ये भूत-प्रेत के किस्से कहानियां उस वक्त टाइम पास का ज़रिया भी तो होते थे। इनमें रोमांच था क्योंकि ऐसी चीज़ की बात होती थी जिसे किसी ने देखा नहीं। सर्दियां आते ही दिन छोटे हो जाते हैं और रातें लंबी। ऐसे में पहाड़ों में ये रातें डरावनी हो जाती थीं। ठंढ में लोग घरों तक सिमटे रहते थे। डिनर के चूल्हे या अंगीठी के आसपास पूरा परिवार बैठता तो बच्चे अक्सर बड़े-बूढ़ों से कहते कि भूत की कहानियां सुना दो। वक्त के साथ ये परंपरा गायब हो गई। मगर ‘इन हिमाचल’ पिछले दो सालों से ‘हॉरर एनकाउंटर’ सीरीज़ के माध्यम से इन किस्सों को जीवंत रखने की कोशिश कर रहा है। हम आमंत्रित करते हैं अपने पाठकों को कि वे अपने अनुभव भेजें। हम आपकी भेजी कहानियों को जज नहीं करेंगे कि वे सच्ची हैं या झूठी। हम बस मनोरंजन की दृष्टि से उन्हें पढ़ना-पढ़ाना चाहेंगे और जहां तक संभव होगा, चर्चा भी करेंगे कि अगर ऐसी घटना हुई होगी तो उसके पीछे की वैज्ञानिक वजह क्या हो सकती है। मगर कहानी में मज़ा होना चाहिए। बहरहाल, हॉरर एनकाउंटर के सीज़न-3 की पहली कहानी संजीव शर्मा* की तरफ से, जिन्होॆने अपना अनुभव हमें भेजा है-

35-40 साल पहले की बात है लगभग। 10वीं में पढ़ता था और एक साल फेल हो चुका था। पढ़ाई में मन नहीं लगता था। ऊपर से घरवाले परेशान करते रहते। पिता जी थे नहीं तो जैसे-तैसे दादा की पेंशन से परिवार चला करता था। मम्मी घर का काम करती थी। चाचा-चाची अक्सर मुझे उलाहना देते कि न घर का काम करता है न पढ़ता है। कुलमिलाकर मैं तंग होकर बर्बादी की राह पर चल पड़ा था। मेरी संगत ऐसी थी जिसमें सारे लोग मेरे जैसे ही थे। लोग हम लोगों ‘दस नंबरिये’ कहकर चिढ़ाते थे।इससे हमारा खून और भी खौलता था। कोई ऐसा नहीं था जो हमें सही रात पर लाने की कोशिश करता। उस वक्त कदम बहक गए थे।

खैर, तो हम 5 लोगों की टोली थी, जो बैजनाथ साइड के लड़कों में काफी बदनाम थी। हम पांचों अक्सर स्कूल जाने के बजाय छप्पर हो जाते और कभी जंगल में दिन काटते तो कभी खड्ड में नहाते तो कभी घूमने के लिए कहीं भी निकल जाया करते थे। सर्दियों के दिन थे। हम पांचों ने प्लान बनाया कि क्यों न बिलिंग चलें, बर्फ देखने। सर्दियों के दिन थे। स्कूल से बंक मारा और बैजनाथ से बस पकड़ ली। रास्ते में डिसाइड हुआ कि बर्फ पड़ी है तो बिलिंग तक पैदल जाना मुश्किल होगा, क्यों न जोगिंदर नगर चलें और शानन पावर हाउस से ऊपर विंच कैंप तक ट्रॉली जाती है, उससे चले जाएंगे। एक नया अनुभव हो जाएगा और बर्फ भी देख लेंगे।

तो बस मंडी जा रही थी तो उसी बस में जोगिंदर नगर चले गए और वहां से आगे अप्रोच रोड नाम की जगह पर उतरे, करीब डेढ़ किलोमीटर पैदल चलकर शानन पहुंच गए। पता चला कि कोई पास बनता है ट्रॉली का। मगर देखा कि लोग बिना पास जा रहे हैं तो हम भी उनके साथ हो लिए। ट्रॉली चली और मजा आने लगा। धीरे-धीरे से रस्सी से चढ़ती ट्रॉली से ऊपर जाना रोमांचक था। धुंध छाई हुई थी। कुछ दिख नहीं रहा था। तो आखिरकार 18 नंबर नाम की जगह पहुंचे, वहां से पैदल ऊपर चढ़ने लगे। हम ही अकेले नहीं थे, वर्दी में कई सारे बच्चे आए थे हुए थे जो शायद आसपास के स्कूलों के थे और हमारी ही तरह बंक मारा हुआ था।

करीब 90 साल पहने बनी ये ट्रॉली आज भी चलती है।

हमारी मंडली का एक दोस्त बैग में अपने पिता की शराब की बोतल भी ले आया था। उसके पापा फौज में थे और घर पर बोतलें रखी हुई थीं। तो उसने कहा चलो ऊपर चलो, अलग एकांत में, वहां दारू पिएंगे। ये मेरा दारू पीने का पहला अनुभव था। पानी मिला नहीं, बर्फ ही बर्फ था। गिलास भी नहीं था तो नीट दारू पी हमने और आधे घंटे में हम पांच लोग बोतल खत्म कर गए। अब न ठंड लगे न कुछ, सुरूर छाया। प्लान बना कि और ऊपर जाना है। तो और ऊपर जाने लगे। बर्फ पड़ी थी मगर ज्यादा नहीं थी। एक पुराना सा रास्ता नजर आ रहा था, उसपर हम चले जा रहे।

लड़कपन की बेवकूफी कहें या कुछ और, मेरे एक दोस्त ने कहा कि भाई ये वही पहाड़ी तो है जो बिलिंग वाली है। यानी हम इस पहाड़ी के ऊपर-ऊपर से चलें तो बिलिंग पहुंच जाएंगे और फिर वहां से उतर जाएंगे। बिलिंग के नीचे ऐहजू और जोगिंदर नगर की दूरी 12 किलोमीटर है सड़क से। दोस्त अंदाज़ा लगाने लगे कि ये तो सड़क का डिस्टेंस है, जिसमे मोड़ है। पहाड़ी तो सीधी है आर से पार, ये उससे कम ही होगी और आराम से हम मौज करते हुए शाम तक पहुंच जाएंगे बिलिंग। सभी ने एक स्वर में कहा कि चलो। सभी की मति मारी गई थी। ये लॉजिक नहीं आया कि तुम अनजाने रास्ते पर जा रहे हो और वो भी पहाड़ की चोटी से, जिसमें कई उतार-चढ़ाव होंगे, रास्ता भी नहीं होगा और मोड़ भी होंगे।

लेखक के मुताबिक दोस्त सामने दिख रही ऊंची पहाड़ी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाना चाहते थे।

तो हमने चलना शुरू कर दिया। आधा घंटा चलने के बाद हमारी सांस फूलने लगी। प्यास लग रही थी मगर पानी नहीं था। बमुश्किल 2 किलोमीटर चले होंगे और वहां भी कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। सिर्फ बर्फ और उसके बीच में कहीं कहीं उभरी चट्टानों। चारों तरफ धुंध। पहाड़ी के इस तरफ भी, उस तरफ भी। बाईं तरफ जोगिंदर नगर था तो दाईं तरफ शायद बरोट। आगे सिर्फ 20 फुट की दूर की चीजें दिख रही ंथीं.

अब हमारी हिम्मत जवाब देने लगी। मैंने कहा कि भाई, अभी टाइम है, वापस चल लो। मगर हमारे बीच जो हमारा रिंग मास्टर था- मनु। उसने एक नहीं सुनी, बोला चलो न। हम चलने लगे। शाम होने लगी और पता ही नहीं है कि कहां जा रहे हैं। कोई रास्ता नहीं दिख रहा। अब घबराहट होने लगी। इतने में जनाब हम क्या देखते हैं कि सामने एक झंडा लहरा रहा है लाल। कदमों मे तेजी आई और हम चल दिए। देखा कि पहाड़ के रिज पर बहुत सारे पत्थर रखे हुए हैं जो बर्फ से ऊपर निकले हुए हैं। उनके साथ कहीं पर लाल कपड़े हैं तो कहीं लोहे के त्रिशूल तो कुछ सिक्के। कहीं पर कोई मूर्ति नहीं, कुछ जगह पत्थरों पर कुछ लिखा हुआ मगर भाषा समझ से परे। मेरे दोस्त ने कहा कि त्रिशूल उठा लो, कोई जंगली जानवर मिलेगा तो आत्मरक्षा में मददगार होंगे।

हिचकिचाते हुए हमने त्रिशूल उखाड़े औऱ चल दिए। रास्ते में इक्का-दुक्का लकड़ियां उठाई थीं और उन पत्थरों पर चढ़ाए हुए कपड़े भी उठा लिए थे। कुछ ही देर में अंधेरा और आगे का दिखना बंद। अब समझ लो कि मौत तय है। कुछ नहीं दिख रहा था। हमने तय किया कि भाई, अब चलने का फायदा नहीं है और मरना ही है तो बचने की कोशिश करते हैं कोई पत्थर ढूंढते हैं, उससे टिकते हैं, आग जलाते हैं और बचने की कोशिश करते हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर

हवा बंद थी, अंधेरा और एक तिरछा सा पत्थर मिला। हमने उसके नीचे पहले तो अपने बस्ते बिछाए, किताबें निकालकर साइड में रख लीं, उसपर एक-दूसरे से चिपककर बैठ गए और अपने जैकेट उतारकर उन्हें ओढ़ सा लिया। ठंड लग रही थी मगर लग रहा था कि रात निकल जाएगा। लकड़ी और कपड़ों को एक तरफ रख दिया था कि हद से बाहर हो जाएगी जब ठंड, तब इन्हें जलाएंगे। शुरू के दो घंटे तो आराम से बीते, मगर फिर ठंड ने प्रकोप दिखना शुरू कर दिया। हम सब बोलने लगे कि आज जलानी चाहिए, मगर हममें से कोई भी बाहर निकलने को तैयार नहीं, सब कांप रहे।

जो हमारा रिंग लीडर था मनु, उसे मैंने कहा कि मनु तू कर यार। मनु उठा और उसने आग जलाई माचिस से। पत्थरों से उठाए कपड़े गीले थे मगल सिल्की होने की वजह से जलने लगे, गीली लकड़ियां आग नहीं पकड़ रही थीं। हमने अपनी किताबों को कॉपियों को जलाना शुरू कर दिया था। पढ़ने वाले बच्चे होते अगर हम तो बहुत सारी होती मगर हर किसी के पास दो किताबें एक आध कॉपी और एक रफ कॉपी थी। 1 घंटे में जब कुछ बचा खुचा मामला लगभग स्वाहा। और अब फिर ठंड चरम पर। मैंने कहा कि यार मैं लकड़ी ढूंढता हूं। मैंने अधजली लकड़ी ली, उसपर एक सिल्की सा लाल कपड़ा लपेटा और उसकी टॉर्च सी बनाता हुआ आसपास लकड़ी ढूंढने लगा। मगर इतनी ऊंचाई पर घास ही घास थी, न कोई पेड़ न कोई पौधा। लकड़ी कहां से मिलती। इतने में मेरा पैर फिसला और हाथ में पकड़ी लकड़ी गिरी औऱ आग बुझ गई।

मैं दोस्तों को आवाज देने लगा मगर उनकी तरफ से कोई जवाब न आए। इतने में मुझे अपने पीछे किसी बुजुर्ग की आवाज सुनाई दी जो पहाड़ी में बोल रहा था। उसने कहा कि मैं किसे आवाज दे रहा हूं। मेरी सांसें थम गईं। तुरंत पीछे मुड़ा तो घुप्प अंधेरा। मैंने कहा कौन है। आवाज आई- मैं कौन हूं, ये तो बाद की बात है पर तू कौन है और यहां क्या कर रहा है? मैंने कहा कि मैं फ्लां गांव से हूं और दोस्तों के साथ आया था तो फंस गए हैं। आप कौन हैं? ये बोलते हुए मैं अंधेरे में जोर देकर देखने की कोशिश कर रहा था कि कौन बोल रहा है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

आवाज आई, अच्छा तो तू फ्लां आदमी (मेरे पिता का नाम लिया) का बेटा है। इससे पहले कि मैं पूछता कि आप कौन हैं और आपके मेरे पिता का नाम कैसे पता, अपने हाथ में मुझे एक जकड़न महसूस हुई। ऐसा लगा कि मेरा हाथ पकड़ा गया है। आवाज आई- चल मेरे साथ, यहां रहेगा तो मर जाएगा। पता नहीं क्या-क्या करते हैं आज के बच्चे। मैं कुछ बोल ही नहीं पाया। बस चलने लगा। आगे-आगे कोई चल रहा था जिसने घुप्प अंधेरे में मेरा हाथ पकड़ा था और मैं पीछे-पीछे चल रहा था। एक-दो बार मेरे पांस फिसले मगर उस हाथ ने गिरने नहीं दिया। आगे पदचाप भी सुनाई दे रही थी और वो बुजुर्ग सी आवाज बोलती जा रही थी- बड़ों की बात सुन लिया करो, मगर आजकर कोई सुनता कहां है। और न जाने क्या-क्या कहा मुझे याद नहीं। एक जगह आकर मुझे रुकने को कहा गया और मेरे हाथ को छोड़ दिया गया।

घुप्प अंधेरे में दरवाजा सा खुलने की आवाज आई। मुझे फिर पकड़कर मानो घर के अंदर ले जाया गया हो क्योंकि वहां गर्माहट थी। और बैठने को कहा गया। जैसे ही मैं बैठा, नीचे गर्म मखमली सा अहसास हुआ बिस्तर जैसा। बोला कि सो जा जूते उतारकर और ओढ़ ले। अब मैंने कहा- मेरे दोस्त भी मेरे साथ, वो ठंड में…. इससे पहले कि मैं अपनी बात पूरी करता, आवाज आई: इन दोस्तों का ही तो साथ छुड़वाना पड़ेगा तेरे से। मगर चल, उनको भी कुछ नहीं होगा मगर तू उनका साथ छोड़ेगा तब। मैंने कहा कि मैं छोड़ दूंगा। आवाज आई- ठीक है, सो जा। तू सो जा, मैं तेरे दोस्तों को देखता हूं।

इसके बाद न जाने मुझे कब नहीं आ गई। मेरी नींद खुली तो मैंने खुद को अस्पताल में पाया। पता चला दो दिन से बेहोश था और मेरे चारों दोस्त मुझे उठाकर ट्रॉली तक लाए थे। मैंने दोस्तों से पूछा कि क्या हुआ। तो उन्होंने बताया कि जब तू लकड़ियां ढूंढने गया था, इसके बाद एक बुजुर्ग आया था एक घोड़े के साथ। उसने हमें बोला कि नीचे तुम्हारा दोस्त पड़ा हुआ है, उसे उठाकर ऊपर लाओ। हम ठिठुर रहे थे, उसने ही आग जलाई और हमें दूध भी पिलाया। और पट्टू दिए ओढ़ने को। जब हम लोग तुम्हें उठाने नहीं गए तो वो खुद ही तुम्हें उठाकर ऊपर लाया और हमारे साथ सुला दिया। हम बुरी हालत में थे उठ नहीं पा रहे थे। उसने अपने गिलास वापस लिए और सुबह होने से पहले ही बोला कि बहुत दूर जाना है। उसने कहा कि अपने दोस्त को इस पट्टू में लिटाकर चारों तरफ से चारों तुम उठाकर उसी तरफ से जाना, जहां से आए हो। और ये त्रिशूल वगैरह वहीं छोड़ देना जहां से उठाए थे। इसके बाद वो घोड़े के साथ चला गया।

दोस्तों ने बताया कि इसके बाद वो मुझे उठाकर वापस विंंच कैंप ले आए और वहां से ट्रॉली के ज़रिए नीचे। मैंने उनसे पूछा कि त्रिशूलों का क्या किया? बोले कि वहीं रख दिए जहां से लाए थे। मैंने कहा बुजुर्ग कैसा था देखने में। बोले कि हमने चेहरा नहीं देखा। और वो पट्टू कहां है जो तुमने ओढ़ा था और जिसपर मुझे लाए थे। सब एक दूसरे की शक्ल देखने लगे। बोलने लगे कि यहीं कहीं होगा। उस पट्टू को ढूंढने की कोशिश की गई, मगर या तो दोस्तों ने उन्हें अस्पताल में कहीं गुम कर दिया या शायद ट्रॉली में रखकर ही भूल गए।

भेड़ की ऊन से बने शॉल जैसे ये हल्के कंबल बहुत गर्म होते हैं.

मुझे ठंड के मारे निमोनिया हो गया मगर रिकवर कर गया। मगर जान बच गई। इस बीच मैं सोचता रहा कि वो कौन बुजुर्ग था जो मेरा हाथ पकड़कर गर्म जगह पर एक बिस्तर में सुलाने ले गया था और वहां से मैं दोस्तों के बीच कैसे पहुंचा। वही बुजुर्ग मेरे दोस्तों के सामने आग जलाकर दूध पिलाकर कंबल कैसे दे गया? सुबह होने से पहले ही वह कहां चला गया? मुझे ही नहीं, हम सभी के जानने वालों को इन सवालों ने परेशान किया। किसी ने कहा कि गडरिया होगा जो बाइ चांस वहां से गुजर रहा होगा। क्योंकि उन्हीं के पास घोड़े होते हैं और वे बकरी के दूध से चाय आदि बनाने का पूरा सामान भी रखते हैं वो और कंबल आदि भी।

वहीं कुछ का कहना था कि वह दिव्य आत्मा थी, शायद उन पहाड़ों का कोई रखवाला था या कोई ऋषि या महापुरुष जो वहीं तप करता हो। मगर उसकी आवाज सुनाई दी, उसकी छुअन महसूस हुई, चेहरा नहीं देख पाया। मगर मेरी जिंदगी तो आज उसी की देन है। आज साइंस कहती है कि बर्फ में ठंड की वजह से और डर की वजह से मुझे भ्रम हुआ यानी हैल्यूसिनेशन की वजह से सपने में मैं कल्पना करता रहा कि किसी बुजुर्ग ने मुझे गर्म जगह पर शरण दी। और मेरे मन ने कहानी गढ़ी कि वह मेरे पिता को जानता है।

मगर मैं मानता हूं कि कुछ दिव्य चीज़ थी जो मुझे बचा गई। और उसके कहे मुताबिक मैंने उन दोस्तों से नाता तोड़ा और पढ़ाई पर ध्यान दिया। न सिर्फ कामयाब हुआ, बल्कि अब अच्छी जगह काम कर रहा हूं और परिवार भी अच्छे से सैटल्ड है। अभी बच्चों की भी शादियां हो गई हैं और अगले तीन साल में रिटायर हो जाऊंगा। वही मेरे वो दोस्त नहीं सुधरे और बाद में बहुत ही गलत अपराधों में शामिल हुए। आज भी वे कामयाब होंगे पैसों की दृष्टि से, मगर उनका इतिहास उन्हें सम्मान नहीं दिला पाया। मगर मैं बचपन के सारे गलत कामों की छाप मिटाकर आत्मसंतुष्टि के साथ जी रहा हूं। धन्य हो वह घटना।

(हमने लेखक का नाम बदल दिया है)

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DISCLAIMER: इन हिमाचल का मकसद अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है। हम लोगों की आपबीती को प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि अन्य लोग उसे कम से कम मनोरंजन के तौर पर ही ले सकें और उनके पीछे की वैज्ञानिक वजहों पर चर्चा कर सकें। आप इस कहानी पर कॉमेंट करके राय दे सकते हैं।

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