जानें, क्या है कोटरोपी में उल्कापिंड गिरने से भूस्खलन होने की चर्चा का सच

इन हिमाचल डेस्क।। सोशल मीडिया का दौर है, ऐसे में एक घटना को लेकर 100 कहानियां सामने आ जाती हैं। कुछ सच्ची होती हैं तो कुछ झूठी। कुछ में सच और झूठ का घालमेल होता है। कोटरोपी में आए भूस्खलन को लेकर कई तरह की खबरें आई हैं। जैसे कि कुछ लोगों का दावा था कि हर 20 साल में यहां बड़ा भूस्खलन होता है तो कुछ का कहना था कि इस हादसे की भविष्यवाणी पहले ही हो गई थी। मगर इस हादसे को लेकर एक पोर्टल ने ऐसी कहानी छापी जो हटकर थी। उसका शीर्षक था- क्या किसी खगोलीय घटना की वजह से कोटरोपी में हुआ भूस्खलन? क्या है सच, जानने के आखिर तक पढ़ें, जानकारी रोचक और ज्ञानवर्धक है।

 

खगोलीय मतलब मतलब ऐस्ट्रोनॉमिकल। इस रिपोर्ट में दावा किया गया था कि 12 अगस्त को उल्कापात (उल्काएं गिरना) की घटना होनी थी। दुनिया के कई हिस्सों में उस रात उल्काएं गिरने के नजारों को लोगों ने कैद किया। चूंकि इस घटना को लेकर वैज्ञानिकों से पहले से ही बताया था, ऐसे में कुछ लोगों द्वारा आशंका जताई जाने लगी कि कहीं 12 अगस्त को कोटरोपी में कोई उल्कापिंड तो नहीं गिर गया था जिससे भूस्खलन हो गया। पोर्टल ने अपनी खबर में लिखा था कि लोगों ने भूस्खलन से पहले एक धमाके की आवाज भी सुनी थी। कहीं वह धमाका उल्कापिंड गिरने की वजह से तो नहीं हुआ था। और तो और कुछ लोगों ने कहा कि जहां पर भूस्खलन हुआ है, वहां पर बने गड्ढे पर काले निशान भी हैं जो उल्कापिंड के हो सकते हैं।

गड्ढे के बीच में बने काले निशान को उल्कापिंड के गिरने की वजह से हुआ निशान बताया जा रहा है। ऐसा उल्कापिंड जो वायुमंडल में पूरी तरह जल नहीं पाया।

कितना दम है इस थ्योरी में?
ऊपर वाली थ्योरी पहली नजर में तो काफी दमदार लगती है। लगता है कि हो सकता है कि जब पूरी दुनिया में उल्कापिंड गिरने थे, वैसे में एक बड़ा उल्कापिंड यहां गिर गया हो और उसकी वजह से पहाड़ी ढह गई हो। मगर इस थ्योरी पर यकीन करना थोड़ा मुश्किल लगता है। ‘इन हिमाचल’ ने  इस संबंध में विभिन्न भौतिक शास्त्रियों से बात की और सच का पता लगाने की कोशिश की।

 

12 अगस्त को चरम पर था परसीएड उल्कापात 
सबसे पहले तो बात कर लेते हैं कि 12 अगस्त को कौन सी खगोलीय घटना होने वाली थी। दरअसल 12 अगस्त को दुनिया के विभिन्न हिस्सों में देखी गई उल्कापिंड गिरने की घटना ‘परसीएड उल्कापात’ या ‘Perseid meteor shower’ के नाम से पहचानी जाती है। धरती पर यह घटना तब होती है जब सूरज का चक्कर काटते वक्त पृथ्वी उस ‘स्विफ्ट-टटल’ नाम के धूमकेतु के पीछे रह गई धूल और अन्य पिंडों वाले क्षेत्र से होकर गुजरती है।

 

स्विफ्ट टटल नाम का यह धूमकेतु हर 133 साल में सूरज का चक्कर पूरा करता है। हर साल अगस्त महीने में पृथ्वी इस इलाके से होकर गुजरती है। परसीएड के उल्कापिंड दरअसल स्विफ्ट-टटल धूमकेतु के टुकड़े हैं। जब पृथ्वी इन टुकड़ों वाले इलाकों से होकर गुजरती है तो कुछ टुकड़े पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की वजह से खिंचे चले आते हैं। मगर चूंकि ये छोटे टुकड़े हैं, इसलिए वायुमंडल में प्रवेश करते ही घर्षण की वजह से हवा में ही जल जाते हैं। रात के आसमान में ये लंबी धारी सी छोड़ते हुए जलते हैं। धरती पर इनकी राख ही पहुंच पाती है।

परसीएड्स की 2010 की तस्वीर (WIkipedia)

इन्हें परसीएड्स इसलिए कहा जाता है क्योंकि देखने में ये पर्सियस (Perseus) जिसे हिंदी में परशु या फरसा करते हैं, के वार की तरह लगता है। पृथ्वी इस इलाके से 17 जुलाई से लेकर 24 अगस्त के बीच गुजर रही है इस साल। मगर वैज्ञानिकों के मुताबिक 12 अगस्त वह दिन था जब वह इस इलाके के बीचोबीच थी, जहां पर उल्कापिंड ज्यादा थे।

तो क्या हिमाचल में भी गिर सकते थे परसीएड्स?
गिरने की बात बाद में, पहले बात कर लेते हैं कि ये परसीएड्स कहां से दिख सकते हैं। परसीएड्स उत्तरी गोलार्ध यानी नॉर्दर्न हेमिस्फियर से साफ दिखते हैं। चूंकि भारत भी इसमें शामिल है, इसलिए यहां से भी इन्हें देखा जा सकता है। मगर धूमकेतू की पूंछ के धूल और पिंडों से भरे जिस इलाके से होकर पृथ्वी गुजरती है, वहां पर ज्यादा बड़े उल्कापिंड नहीं हैं। अगर इतने बड़े उल्कापिंड होते तो वर्षों से इस धूमकेतु को स्टडी कर रहे वैज्ञानिक और खगोलशास्त्री पहले ही चेता देते।

इस धूमकेतु के अधिकतर पिंड पृथ्वी के वायमुंडल में प्रवेश करने बाद धरती से 80 किलोमीटर ऊपर ही जल जाते हैं। ऐसे में यह संभावना न के बराबर है कि यहां पर कोई उल्कापिंड गिरा हो। अगर वह गिरा भी होता अधजला होता चमक छोड़ रहा होता। चूंकि इसका साइज बड़ा होता तो इसके जलने की लपट की रोशनी ऐसी होती कि पूरे इलाके में दिन की तरह उजाला हो गया होता। जैसे कि वीडियो मे देखें

फिर लोगों को धमाका किस चीज़ का सुनाई दिया?
उल्कापिंड वाली थ्योरी देने वाले पोर्टल ने लिखा कि लोगों को पहले धमाका सुनाई दिया था। प्रत्यक्षदर्शियों का भई कहना था कि उनको ऐसा लगा जैसे बम गिरा हो। दरअसल जब धरती का कोई बड़ा हिस्सा गिरता है, उसमें चट्टानें, जमीन का बड़ा हिस्सा, मिट्टी, लताएं, बूटे, मलबा… न जाने क्या-क्या होता है। जब यह अलग होता है तो इससे बहने से बहुत जोरदार गर्जन पैदा होती है और दूर तक शॉकवेव (लहर सी) भी जाती है। और हां, लैंडस्लाइड होने के लिए बारिश का होना जरूरी नहीं है। यह लंबे समय से चल रहे भूगर्भीय तनाव और प्रेशर की वजह से भी आता है। दोनों बातों के लिए हिमाचल के किन्नौर का ही उदाहरण देखें:

भूस्खलन वाली जगह जलने जैसे निशान किस चीज के हैं?
जिन निशानों को जलने के निशान बताया जा रहा है, वह दरअसल मिट्टी का रंग है। गहराई में विभिन्न खनिज पदार्थों और चट्टानों की वजह से रंग अलग हो जाता है। इसी तरह से कुछ निशान सड़क के बहे हुए हिस्से के भी हैं जो काले नजर आ रहे हैं। इसलिए यह सामान्य बात है।

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क्या है निष्कर्ष?
कुल मिलाकर बात यह है कि स्पष्ट हो चुका है कि कोटरोपी में जहां पर भूस्खलन हुआ, वहां पहले भी भूस्खलन आता रहा है। पिछले कुछ दिनों से गांव के पीछे जमीन पर दरारें भी आ गई थीं। कुछ लोग मकान खाली करके जा भी चुके थे और कई बार पहले भी छोटे भूस्खलन होने पर ग्रामीण जंगल मे रात काट चुके हैं। यह कुदरत की चेतावनी थी जिसे पहले समझ जाना चाहिए था। यह स्वाभाविक रूप से आया भूस्खलन है, इसमें खगोलीय घटना जिम्मेदार नहीं है। यह सही है कि वैज्ञानिक हर उल्कापिंड पर नजर नहीं रख सकते, मगर वैज्ञानिक आधार पर किया गया विश्लेषण बताता है कि कोटरोपी का भूस्खलन किसी खगोलपिंड के गिरने से नहीं हुआ।

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