महासुई लोक संस्कृति को बचाने के लिए जूझता ‘चिराग’

चिराग ज्योति मजटा

प्रशान्त प्रताप सेहटा।। भारतीय समाज लोक संस्कृति की विविधताओं से भरा पड़ा है और लोक संगीत को इन संस्कृतियों की रीढ़ माना जाता है। किसी भी वर्ग विशेष के सांस्कृतिक इतिहास का ज्ञान उसके लोक गीतों के संकलन से लगाया जा सकता है। लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध और कई कारणों से लोक संस्कृति अपना वजूद खो रही है। हिमाचल के महासुई संगीत की बात करें तो आधुनिकता के दौर में यह भी अपने मूल स्वरूप से अलग होता जा रहा है। लेकिन एक ऐसी भी शख्सियत है जो अपने गीतों के माध्यम से इस क्षेत्र की लोक संस्कृति को बचाने में जुटी है। इस शखसियत का नाम है चिराग ज्योति मजटा।

चिराग मूलतः रोहडू के करासा गांव के हैं और पेशे से वकील है। उनके पिता प्रेम ज्योति देश के जाने माने योग प्राध्यापक (रिटायर्ड), प्रशिक्षक, कोच, जज, दार्शनिक व प्रचारक हैं और माता आशा ज्योति नर्स हैं। इसके चलते चिराग ने अपना जीवन गांव से दूर कई शहरों में बिताया है।

चिराग ने अपनी दसवीं तक की पढ़ाई शिमला के डी.ए.वी न्यू शिमला, बारहवीं चंडीगढ़ व कानून की पढ़ाई देहरादून के प्रतिष्ठित लॉ संस्थान से की है। वह हिमाचल प्रदेश के स्टेट लेवल क्रिकेट खिलाड़ी भी रह चुके हैं और शिमला ज़िले का प्रतिनिधित्व भी कर चुके हैं। इसके साथ ही चिराग की विश्व इतिहास, राजनीति व समाज शास्त्र विषयों में बेहद मज़बूत पकड़ है और इतिहास विषय से सम्बंधित एक प्रतियोगिता में वह राष्ट्रीय स्तर पर द्वितीय स्थान अर्जित कर चुके हैं। वह हिमाचल के रियासत कालीन इतिहास और देव संस्कृति व नीतियों के बारे में भी अच्छी खासी जानकारी रखते हैं।

मेरी बचपन से ही संगीत में विशेष रुचि रही है। मैं अपने दादा जी से पारंपरिक महासुई गीतों को सुनकर ही बड़ा हुआ हूँ। लिहाज़ा जब मैंने पहली बार चिराग के गाने सुने और उनके बारे में जाना तो उनकी प्रतिभा का मुरीद हो गया। मैं यह जानना चाहता था कि अपनी संस्कृति से दूर शहर के कॉन्वेंट स्कूलों से पढ़ने और पश्चिमी सभ्यता में रहने सहने वाला मेरी उम्र का युवा आखिर इस तरह के भुले बिसरे पारंपरिक गीत कैसे गा सकता है, वह भी ठेठ पहाड़ी अंदाज में? उसी लहज़े में जैसे मेरे दादा जी मुझे सुनाया करते थे।

जिज्ञासावश जब मैंने चिराग से बात की तो उन्होंने मुझे बताया, “बचपन में मैं सदिर्यों की छुटियों में अपनी बड़ी बहन के साथ अपने नाना-नानी के पास जुब्बल के काइना गांव जाया करता था। नाना एल.आर. चांटा और नानी धनवती चांटा मुझे पारंपरिक महासुई गीत सुनाया करते थे और उन गीतो में छिपी लोक कहानियों का वर्णन करते जिनमें आमतौर पर स्थानीय देवी देवताओं से जुड़ी किवदंतियां, खूंद-खशीयों का बोइर (राजपूतों के आपसी बैर और युद्ध) और मैस्तीयों (सती होने वाली स्त्रियों) का ज़िक्र होता था। एक शहरी व छोटे बालक के लिए यह सब बेहद रोमांचक होता है। लिहाज़ा मैं भी इस बारे में जानने के लिए हमेशा उत्सुक रहता। जिसकी वजह से मुझे अपनी लोक संस्कृति और संगीत का ज्ञान हुआ।”

अपने गुरु सुरेंद्र नेगी (बाएं) के साथ चिराग

चिराग कहते है,  “मुख्य तौर पर मुझे प्रेरणा मेरे नाना से मिली। वह अपने देवता के ठाणी-बज़ीर थे व प्रतिष्टित खूंद ‘कनाल’ हैं। तो उनके साथ रहते हुए ऐतिहासिक सिधान्तों व कहानियों का ज्ञान हुआ। मुझे लोक संस्कृति का ज्ञान व लोक साहित्य के प्रति प्रेम विरासत में मिला है क्योंकि मेरे नाना नानी के साथ साथ मेरी माँ भी एक बहुत अच्छी लोक गायिका हैं।”

चिराग ने अब तक करीब चालीस लोक गीत गाए हैं और उनके तकरीबन सभी गीतों को क्षेत्रवासियों ने खुब सराहा है। चिराग ने साल 2013 में पहला गीत ‘जोऊटा-बढ़ाल का बोइर’ गाया और यह गीत इतना मशहूर हो गया कि चिराग को इसी गीत के नाम से जाना जाने लगा। यह गीत इतना लोकप्रिय हो गया कि जहाँ भी चलाया जाता लोगों के होंट अपने आप इस गीत के बोलों पर गुनगुनाने लग जाते। यहां तक कि चिराग को यह गीत लोगों की फरमाइश पर नए संगीत के साथ दोबारा रिकार्ड करना पड़ा। बस यहीं से महासुई लोक गीतों का बुझता चिराग फिर चमक उठा।

इसके बाद क्या था, चिराग के एक के बाद एक गाने बाज़ार में आए और सभी हिट हो गए। बच्चो से लेकर बूढों तक सबकी जुबां पर उनके ही गीत सुनाई देने लगे। यह बात तकरीबन चार साल पहले की बात होगी मैं और मेरे पिताजी भी इस गीत को रिपीट मोड पर देर तक सुना करते थे। आज भी कई बार मेरे पिताजी इस गीत की फरमाईश करते हैं।

चिराग का गाया दूंदी का गीत हर शादी ब्याह में डीजे की धुन पर नाचने वालों की पहली पसंद है। इनके इलावा चिराग ने माधोसिंह, ज़ांज़ी, खूंद कनाल का बोइर, मैस्ती ग़रीबी, तानू, तुलू, देवता गोली नाग की रोहरू जातर, हांडौ मिंया टिकमेया, सिलदार, आंसिया आदि गीतों से भूला दिए गए इतिहास को पुनर्जीवित कर दिया है। इनके गायन की ख़ास बात यह है कि ये गीतों की कहानी का पूरा ज्ञान व बोल सब से साझा करते हैं। कोई भी इनके गीतों में गाये गए बोलों के स्पष्ट उच्चारण का मुरीद हो जायेगा, जोकि समकालीन गायकों में उपेक्षित रहता है।

मुझे चिराग के बारे में सबसे दिलचस्प बात यह लगती है कि मैं जब भी उनसे मिलता हूँ या फ़ोन पर बात करता हूँ तो वह पहाड़ी बोली में बात करना शुरू कर देते है। उनके चाहने वालों को शायद विश्वास न हो लेकिन यह बिलकुल सच है कि उन्हें पहाड़ी बोली में बात करना नहीं आता । इसके बावजूद जिस ठेठ पहाड़ी अंदाज़ में वह गीत गाते हैं वह मंत्रमुग्ध कर देने वाला है। इसके लिए वह हमेशा अपने नाना नानी को ही श्रेय देते है। चिराग हमेशा कहते हैं कि मैं हमेशा गीतों को उसी अंदाज़ में गाने की कोशिश करता हूँ जैसे मैं नाना नानी या बाकी बुजुर्गों से सुनता था। चिराग लगभग 300 पारम्परिक महासुई लोक गीतों के ज्ञाता हैं जो वक्त से साथ साथ भुलाए जा चुके है।

चिराग की गायिकी की एक और खास बात है कि इस युवा ने अब तक लगभग महासुई संगीत की हर एक शैली में गीत गाए है। उनका गाया रंसी बीर-ब्रह्मखाड़ा (छाड़ी), कौंल रामा –बारामा़त्रा, ओ देवा राज़िया (प्रस्तावित)- ठामरू और मादो सिंह की नाटी- हुड़क शैली में गाए कुछ मशहुर लोक गीत हैं। इतना ही नहीं चिराग अपने गाए गीतों में लोक वाद्य यंत्रों को भी बखूबी प्रयोग करते हैं। इनमें रणसिंघा, करनाल, शहनाई, बाणा, कुताल/कंछाई/कणछाल और नगारे शामिल है।

इनकी गायन शैली की ख़ास बात ही अपनी लाइन शुरू करने से पहले बूढों की तरह ‘आं………..’ का उच्चारण करना है जो स्वतः ही विदेश में बैठे व्यक्ति को भी अपने गाँव और रीती-रिवाजों की याद दिला दे। हालांकि सब कुछ ठीक ठाक चलने के बावजूद चिराग ने न जाने क्यों कुछ समय के लिए गायन से मुंह मोड़ लिया था। पूछने पर उन्होंने चुप्पी साधते हुए इस सवाल पर पर्दा डालते हुए बड़े ही वाकपटु अंदाज़ में उत्तर दिया कि “मैं अपने पहाड़ी इतिहास का शुक्रगुज़ार हूँ जिसने मुझे अपने नुमाइंदे के तौर पर चुना है व साथ ही उन सभी का जो निरंतर मेरा साथ देते आ रहे हैं। जो मेरे द्वारा गाए गए इतिहास को जानने और समझने के साथ साथ उसे ज़िंदा भी रख रहे हैं। मुझे गायन से कोई प्रसिद्धि नहीं चाहिए। मैं बस अपनी पहाड़ी संस्कृति का अमरत्व चाहता हूँ।”

खैर अच्छी बात है कि अपने चाहने वालो की गुजारिश के बाद चिराग फिर से वापसी कर रहे हैं। सात महासुई लोक गीतों से सजी उनकी नई एल्बम आगामी 15 सितम्बर को रिलीज़ होने जा रही है। चिराग कहते हैं कि “अगर मेरी संन्यास की घोषणा के बाद वापसी हो रही है तो उसमे मेरे चाहने वालो का बहुत बड़ा योगदान है और मेरी मुख्य प्रेरणा मेरा दोस्त नितीश धालटा रहे हैं। नितीश ने मेरी इस घोषणा के बाद कई दिनों तक मुझे सोने नहीं दिया और यहाँ सभी उन लोगों का नाम ले पाना संभव नहीं है जिसके लिए मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूँ | मेरे कुलिष्ट देवता सहदेव पाण्डव जी, करासा-काईना की माटी, नाना-नानी, माता-पिता, आदरणीय गुरु श्री सुरेन्द्र नेगी व सभी बड़ों का मुझपर परम स्नेह और आशीर्वाद है तो निश्चित ही इनकी प्रेरणाओं से मैं वापसी करने जा रहा हूँ और पुनः आप सभी को अपनी भूली बिसरी गाथाओं से अवगत करवाने 15 सितम्बर को आ रहा हूँ।”

बता दें कि चिराग ने ‘सी फोक( C FOLK)’ नाम से अपना मार्का लांच किया है और वह हिमाचल के उन चुनिंदा गायकों में से होंगे,  जिनकी अपनी व्यक्तिगत वेबसाइट होगी। इनके गीतों को यू ट्यूब पर सी फोक के नाम के चैनल पर ऑनलाइन सुना जा सकेगा व संभावित www.cfolk.in से डाउनलोड किया जा सकेगा।

संगीत के ज़रिए महासुई लोक संस्कृति को बचाने में चिराग का योगदान अतुलनीय है। चिराग एक ऐसे लोक गायक हैं जो अपनी हर एलबम में पारंपरिक क्षेत्रीय लोक संगीत और विलुप्त होती लोक रचनाओं को तरजीह देते हैं। चिराग के गायन ने युवाओं को अपनी विलुप्त होती विरासत से मिलाने का काम बखूबी किया है। मैने यह अनुभव किया है कि जब से चिराग ने गीत गाना शुरू किया युवाओं का पारंपरिक गीतों से लगाव बढ़ा है। वरना आजकल पंजाब की तर्ज पर इस क्षेत्र में भी हर दूसरा व्यक्ति खुद को गायक समझता है और ऑटो-टयूनर और तकनीक की मदद से संगीत के नाम पर इलेक्ट्रॉनिक म्यूजिक की चिल पौं से शोर शराबा फैला रहा है।

चिराग आगामी दौर में भी यूं ही गाते रहें और हम उनसे उम्मीद करते है कि वह पहाड़ी संस्कृति को अपने गाए लोक गीतों को माध्यम से जीवित रखने का प्रयास यूं ही करते रहेंगे।

(लेखक शिमला के जुब्बल के रहने वाले हैं। बाग़वानी और लेखन में उनकी रुचि है। उनसे prashantsehta89 @ gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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