दो विधायकों को बिना मतलब कैबिनेट मंत्रियों जैसा दर्जा क्यों?

इन हिमाचल डेस्क।। कांग्रेस सरकार के दौर में हुई मुख्य संसदीय सचिव (सीपीएस) नियुक्तियों को अनावयश्यक खर्चा बताकर खुद इस तरह की नियुक्तियां न करने की बात कहकर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इस साल की शुरुआत में यह कहते हुए अपनी पीठ थपथपाई थी कि इससे सरकारी खजाने पर बोझ नहीं पड़ेगा।

मगर इसके कुछ ही दिनों बाद सरकार ने ऐसा विधेयक पटल पर रख दिया था, जो हिमाचल के इतिहास में नया था। प्रदेश की नाजुक आर्थिक स्थिति के बावजूद जयराम सरकार ने सचेतक और सह-सचेतक के पद को कैबिनेट दर्जा देने का विधेयक विधानसभा में रखा और इसपर चर्चा हुई। विपक्ष ने इस विधेयक पर आपत्ति जताई और कहा कि इसे लाए जाने की कोई जरूरत नहीं है। सीएलपी लीडर मुकेश अग्निहोत्री ने कहा की ये दोनों लाभ के पद हैं और विपक्ष इसके पक्ष में नहीं है।

क्या तर्क था सीएम का
इसके जवाब में मुख्यमंत्री ने कहा था कि कई प्रदेशों की विधानसभाओं में यह प्रावधान पहले से है। उन्होंने विपक्ष पर तंज कसते हुए कहा कि उनकी पिछली सरकार में 9 मुख्य संसदीय सचिव बनाए गए थे, जबकि हम इस बिल को पारित कर केवल दो पद सृजित करने जा रहे हैं और विपक्ष को इसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। खैर, सरकार के पास स्पष्ट बहुमत है तो उसे इस विधेयक को पारित करने में कोई दिक्कत नहीं हुई।

मंत्रियों को इसलिए मिलती हैं सुविधाएं
हिमाचल में ऐसे पदों पर कभी भी कैबिनेट रैंक न दिए जाने का इतिहास रहा है। कैबिनेट रैंक मिलने का मतलब है कि इन दो पदों पर सरकार वेतन, भत्तों और सुविधाओं के मामले में मंत्री के बराबर खर्च करेगी। बता दें कि कैबिनेट रैंक के वेतन, भत्ते और सुविधाएं आदि काम के लोड के आधार पर मिलती हैं।

जैसे कि मंत्रियों के पास स्टाफ ज्यादा होता है और उन्हें एक्स्ट्रा गाड़ी मिलती है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनका काम अपने विधानसभा क्षेत्र से बढ़कर पूरे प्रदेश तक फैल जाता है। उन्हें प्रदेश के दौरे करने पड़ते हैं, हर जिले के लोगों के काम करने होते हैं। इसलिए उनके मामले में सुविधाओं को जस्टिफाई किया जा सकता है। मगर चीफ विप या सचेतक और उपसचेतक को इसकी क्या ज़रूरत?

सचेतकों का काम क्या है?
चीफ व्हिप या सचेतक दरअसल राजनीतिक नियुक्ति है। इनका काम यह सुनिश्चित करना है कि जब सरकार या सत्ता पक्ष को जरूरत पड़े तो सभी विधायक संसद में मौजूद रहें और किसी प्रस्ताव या बिल आदि पर सरकार के पक्ष में वोट करें। ऐसे ही सचेतक विपक्षी दलों के भी होते हैं। मगर स्पष्ट है कि इनका काम तो विधानसभा सेशन तक ही सीमित रहता है जो साल में तीन सत्रों में कुछ ही दिनों के लिए होता है। बाकी समय सरकारी सचेतकों के लिए मंत्री जैसी सुविधा देने का क्या मतलब है? क्या यह पहले से ही कर्ज में डूबे प्रदेश के कंधों पर और बोझ डालना नहीं है?

वैसे जिस समय सरकार ने यह विधेयक पेश किया था, उसी समय मीडिया में खबर आई थी कि पिछली भाजपा सरकार में मंत्री रहे नरेंद्र बरागटा और रमेश ध्वाला को इन पदों से नवाजा जाएगा क्योंकि इन्हें मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिल पाई है। हुआ भी ऐसा ही। नरेंद्र बरागटा सचेतक बन गए हैं, जबकि उप मुख्य सचेतक बनने के लिए धवाला तैयार नहीं है।

खर्च बढ़ा या घटा
जयराम सरकार बेशक प्रदेश की खराब आर्थिक स्थिति के लिए पिछली कांग्रेस सरकार को कोसती नजर आती है परन्तु खुद अपने नेताओं की मात्र संतुष्टि के लिए सरकार ने नया प्रावधान निकाला है। इस तरह के फैसले से यह तो पुख्ता हो गया है की मुख्यमंत्री जयराम सीपीएस नियुक्त न करने को बेशक सरकारी खर्च कम करने के उदाहरण के तौर पर पेश कर रहे है मगर असल मामला अलग ही है।

आपको याद होगा कि दिल्ली विधानसभा में 20 सीपीएस को ऑफिस आफ प्रॉफिट माना गया था और अदालत के फैसले के बाद इन्हें पद से हाथ धोना पड़ा था। इस तरह सरकार चाहकर भी सीपीएस नियुक्त नहीं कर सकती थी क्योंकि इससे उसपर भी सवाल खड़े हो सकते थे। ऐसे में नाराज चल रहे नेताओं को फायदा पहुंचाने के लिए सचेतकों को कैबिनेट का दर्जा दे दिया गया।

सवाल तो उठेंगे
कानून के हिसाब से तो अब ये सही हो गया मगर क्या नैतिक रूप से सही है? खासकर उस प्रदेश के लिए जो पहले से ही लगभग 50 हजार करोड़ रुपये के कर्ज में डूबा है? लेकिन सवाल यह बनता है कि अगर दूसरे प्रदेश की विधानसभाओं में सचेतक आदि को कैबिनेट रैंक देकर रेवड़ियां बांटी जा रही हो तो क्या उसे हिमाचल प्रदेश में भी लागू करना सही हो जाता है? क्या सरकार को खर्च कम करने के लिए इस तरह की कवायद से बचना नहीं चाहिए?

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