हॉरर एनकाउंटर: कभी नहीं भूल सकता गांव के उस डरावने घर में बिताया वक्त

#HorrorEncounterSeason2 बात उन दिनों की है जब मैं 8-9 साल का था। मेरे पापा हेल्थ डिपार्टमेंट कंपाउडर हैं और मम्मी हाउस वाइफ हैं। पापा का ट्रांसफर उन दिनों मंडी जिले के दूर-दराज के गांव में बने प्राइमरी हेल्थ सेंटर (डिस्पेंसरी) में हुआ था। न तो वहां के लिए कोई सड़क थी न ऐसी दूरी की पैदल आया जा सके। पापा ने कोशिश की ट्रांसफर रुकवाने की या कहीं अडजस्टमेंट करवाने की मगर राजनीतिक लिंक न होने की वजह से काम नहीं हो पाया। नौकरी तो करनी ही थी इसलिए पापा ने जॉइन कर लिया। मुझे ही वहां के ही प्राइमरी स्कूल में ऐडमिशन करवा दिया गया जो डिस्पेंसरी के पास ही थी। खास बात यह थी कि स्कूल और डिस्पेंसरी जंगल के पास थे और उनके पास एक पुराने खंडहरनुमा दुकान थी जिसका दुकानदार शाम को ही दुकान बंद करके चला जाया करता था। डिस्पेंसरी स्कूल के साथ ही बने पुराने एक पुराने भवन में चल रही थी जो किसी वक्त किसी परिवार का घर था और अब शहर जा चुका था। ग्राउंड फ्लोर के एक कमरे में डिस्पेंसरी चलती थी, एक में स्टोर था और ऊपर वाली मंजिल में हम रहा करते थे। चूंकि नई-नई डिस्पेंसरी खुली थी तो उसका भवन नहीं बन पाया था। पंचायत भवन का भी एक ही कमरा था इसलिए वहां पर भी जगह नहीं मिल पाई थी।

 

खैर, दिन को स्कूल जाता तो मजा आता। बच्चे आते जगह-जगह से, उनके साथ खेलता और फिर वे चले जाते। कभी-कभार कुछ बच्चे देर तक रुक जाते ताकि स्कूल के ग्राउंड में क्रिकेट खेल लें। मगर अंधेरा होने से पहले वे भी चले जाते। शाम को हम उस इलाके में तीन लोग रह जाते- मैं और मेरे मम्मी पापा। दूर पहाड़ी में हमें घरों की लाइटें दिखतीं मगर वहां जाना भी तो पहले उथराई में नाला पार करो फिर चढ़कर वहां पहुंचो। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि पहले के इलाके कितने बियाबान होते थे। तो जहां हम रहते थे, उसके सामने खेत थे मस्त मगर उनमें सदियों से कुछ उगा नहीं था। पापा और मम्मी के पास खाली वक्त होता तो उन्होंने प्लान बनाया कि क्यों न जरूरत की छोटी-मोटी सब्जियां वगैरह इन खेतों में उगा ली जाएं। वे दोनों शाम को फावड़े से खुदाई करते। हफ्ते भर में तीन छोटे खेत खोद लिए गए। पापा ने गांव के किसी बंदे से भिंडी वगैरह के बीज भी मंगवा लिए थे तो वो दिए। अब होता ये था कि ऊपर चूल्हा थआ (रसोई) और उसके साथ दो कमरे थे। एक में मैं सो जाया करता था और दूसरे में मम्मी-पापा। मेरे वाले कमरे में खिड़की नहीं थी मगर खिड़की के नाम पर पूरा का पूरा दरवाजा था। यानी बाहर की तरफ दरवाजा मगर उसके नीचे सीढ़ियां नहीं। कोई आगे बढ़े तो पहली मंजिल से तुरंत नीचे गिरे। मैं उस दरवाजे को खोलकर रखता था। हवा का लुत्फ उठाता था और उससे बाहर दिखते हिलते-डुलते पेड़ और आसमान में तारे भी नजर आते थे।

 

एक दिन रात को न जाने क्यों मेरी नींद खुली अचानक और बाहर की तरफ नदर गई। मैंने देखा कि उस दरवाजे पर कोई खड़ा हुआ है। मुझे वहां रहते 5 से 6 महीने हो गए थे, रोज दरवाजा खुला रहता था, तब तक ऐसी कोई घटना नहीं हुई। यूं समझो कि दरवाजे पर जो खड़ा था वह काला दिख रहा था यानी उसके पीछे की रोशनी में उसका चेहरा नजक नहीं आ रहा था। मैं घबराया और मैंने चादर ओढ़ ली। दिल धुक-धुक कर रहा था। मैंने सोचा कोई गलतफहमी या सपना तो नहीं। फिर मैंने चादर में छेद बनाकर देखा तो वाकई कोई खड़ा था जो कमरे से बाहर की तरफ देख रहा था। निश्चित रूप से वह न तो पापा थे और न ही मम्मी क्योंकि उसकी हाइट बहुत कम थी। मैं रजाई के छेद से देखता रहा। मैंने देखा कि 5-6 मिनट बाद वह मुड़ा और कमरे की तरफ चलने लगा और चलते हुए किचन में चला गया।

 

मन किया कि चिल्लाऊं पापा… मम्मी… मगर सुन्न सा हो गया था। थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि वह किचन से फिर आया, उस कमरे में आया। दरवाजे पर खड़ा हुआ और वहीं से जंप लगाकर चला गया। मैं उसके जाने के बाद भागता हुआ गया और मम्मी-मम्मी चिल्लाता दसरे कमरे में गया और बेहोश हो गया। थोड़ी देर बाद होश आया तो मम्मी ने गोद में पकड़ा हुआ है और पापा भी पेरेशान हैं। उन्होंने पूछा क्या हुआ तो मैंने पूरी बात बता दी। उन्होंने बोला कि डरने की बात नहीं है, पता नहीं कौन चोर आ गया था। ये तो अच्छा हुआ उसने कुछ किया नहीं। रात भर सोया नहीं और सुबह हो गई। अगले दिन पापा ने चर्चा की तो पूरे इलाके में हल्ला हो गया कि कंपाउंडर के यहां चोर घुस आया था। पापा ने अगले दिन से सख्त हिदायत दी कि दरवाजा बंद रखकर सोया करो। मैं भी वैसा ही करता। कुछ दिन बीत गए। एक दिन अचानक मुझे खटखट की आवाज सुनाई दी। मैंने महसूस किया कि आवाज उसी दरवाजे से आ रही है। चादर हटाकर देखा तो दरवाजा खुला था। मैंने उठकर देखा तो किचन से एक आदमी निकला जो मेरी तरफ देख रहा था औऱ मुस्कुरा रहा था। ऐसा लग रहा था कि वो चल नहीं रहा था बल्कि हवा में तैर रहा था। और मुस्कुराते हुए वह दरवाजे से बाहर निकल गया। न कूदा, न गिरा,… बस मानो हवा में ही तैरते हुए निकल गया। मैं चिल्लाया तो मम्मी-पाया दौड़ते हुए आए। पहला सवाल- दरवाजा किसने खोला। मगर मैं कुछ बोलने की स्थिति में नहीं। अगली सुबह पापा को बात बताई तो उन्होंने सोचा कि डर गया हूं। उन्हें यह भी आशंका होने लगी कि स्लीपवॉकिंग करने लगा हूं। उनके मन में एक सवाल यह भी आय़ा कि मैं यहां आना नहीं चाह रहा था पुराना स्कूल छोड़ने के लिए इसलिए हो सकता है कि बहाने बना रहा हूं।

 

कहीं से यह बात फैल गई और स्कूल तक पहुंच गई। बच्चे भी चर्चा करने लगे कि इसको कुछ दिखता है। बच्चे घर में भी चर्चा करते होंगे। एक दिन ऐसे ही मेरा क्लासमेट बताने लगा कि उसकी दादी ने उसे बताया है कि जहां हम रहते हैं, वहां कुछ न कुछ है और उसी वजह से पुराने लोग घर छोड़ गए हैं। मैंने ये बात घर पर बताई तो पापा ने मुझे डांट दिया कि फालतू बातों पर भरोसा मत करो। फिर कुछ दिन बात ऐसी घटना हुई जिनसे सबको हैरान कर दिया। रात को अचानक रसोई के सारे बरतन रैक से गिरने की आवाज आने लगी। मैं भी उठा। पापा ने रसोई की लाइट जलाई तो सारे बरतन गिर रहे थे और इधर-उधर पड़ रहे थे। लाइट ऑन करने के बाद भी सिलसिला जारी रहा। पानी की एक खाली बाल्टी तो हमारे सामने पलटकर डोलने लगी। पापा ने कुछ पढ़ना शुरू किया। मम्मी तो चिल्लाकर मेरे पास आ गई थी और मुझे पकड़ लिया था। कुछ देर में सिलसिला थमा। पापा ने मेरे कमरे का दरवाजा खोला और बाहर की तरफ देखा… हमने देखा कि आंगन के सामने खेतों के बाद जहां जंगल शुरू होता है- वहां तीन-चार लोग खड़े हैं। एक महिला, एक पुरुष और दो बच्चे।

तस्वीर प्रतीकात्मक है

अजीब से लग रहे थे और घर की तरफ देख रहे थे औऱ मुस्कुरा रहे थे। पापा ने तुरंत दरवाजा बंद किया। फोन भी उन दिनों नहीं होते थे। इसलिए दरवाजा बंद ही रखा और सुबह का उजाला होते ही हमें लेकर स्कूल की बिल्डिंग के पास चले गए और दुकानदार के आने का इंतजार करने लगे जो स्कूल खुलने से कुछ देर पहले पहुंच जाया करता था।
पापा ने सारा किस्सा दुकानदार को बताया तो दुकानदार ने बोला- मास्टर जी, इस घर में कुछ गलत काम हुए हैं बुजुर्गों से सुना है। पता नहीं क्या हुए हैं। इस घर के जो मालिक हैं जिन्होंने अपनी पुरानी इमारत ये डिस्पेंसरी वगैरह को फ्री में दी है, वो भी इसीलिए घर से गए थे क्योंकि उन्हे कुछ गलत महसूस होता था। मेरी सलाह मानो गांव में कहीं और ले लो मकान, बच्चों का भी सवाल है। बस टाइम के ड्यूटी पर आओ और टाइम के जाओ। तभी तो यहां पर कोई जॉइन नहीं करता है।

 

मगर पापा ने उसके बाद छुट्टी के लिए अप्लाई किया। सामान बांधा और अपने घर चले गए। उसके बाद उन्होंने 4 महीने छुट्टी पर काटे और इस दौरान ट्रांसफर की कोशिश करते रहे। आखिरकार सफलता मिली और ट्रांसफर पास की ही एक डिस्पेंसरी में नौकरी जॉइन कर ली। उसके बाद ऐसा कुछ नहीं हुआ। हमने जो भिंडियां और अन्य सब्जियां उगाई थीं, वे वहां की वहां रह गई। जिज्ञासावश मैं पिछले साल उसी जगह गया गाड़ी से। आज वहां सड़क बन गई है। कई दुकानें खुल गई हैं। स्कूल भी हाई-स्कूल बन गया है और कई सारे घर बन गए हैं। डिस्पेंसरी भी पक्की बन गई है और अब तक वहां वेटरिनरी डिस्पेंसरी का काम चला हुआ है। मगर वह घर आज भी वैसा का वैसा है। ढह गए हैं पीछे के कुछ कमरे। सामने के खेतों में घास उगी है और कुछ छोटे-मोटे पौधे उग आए हैं। मैंने आंगन से ऊपर की तरफ वो दरवाजा देखा जहां मेरा कमरा था और दाएं वो जंगल, जहां वह परिवार था। उस दिन हवा बड़ी तेज चल रही थी और अजीब सी आवाज कर रही थी। मेरा दिल बैठा जा रहा था आवाज सुनकर अजीब सा डर लग रहा था। तुरंत वहां से निकला और कार स्टार्ट करके घर आ गया। ऐसा लगा मानो बचपन की यादें और डर ताजा हो गए। शायद अब मैं वहां कभी जाना पसंद नहीं करूंगा।

नोट: हमने लेखक और जगहों का नाम नहीं दिया है ताकि बिना वजह किसी जगह को लेकर अंधविश्वास न फैले

हॉरर एनकाउंटर सीरीज के किस्से पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

DISCLAIMER: इन हिमाचल का मकसद अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है। हम लोगों की आपबीती को प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि अन्य लोग उसे कम से कम मनोरंजन के तौर पर ही ले सकें और उनके पीछे की वैज्ञानिक वजहों पर चर्चा कर सकें। आप इस कहानी पर कॉमेंट करके राय दे सकते हैं।

SHARE