बाबा! आप कांग्रेसी या भाजपाई, इससे मतलब नहीं…

नवनीत शर्मा।। देसी आम पक रहे हैं। वातावरण में महक है उनकी। धर्मशाला-चंडीगढ़ राजमार्ग पर ढलियारा से डाडासीबा के लिए मार्ग है। उसी पर गुरनवाड़ नाम एक गांव है। वहां से फिर अंदर को चलें। करीब दो ढाई किलोमीटर दूर बाबा पहाड़ी गांधी का गांव। कौन सा घर है, यह धूप के इस मौसम में बताने के लिए कोई नहीं। न कोई बोर्ड, न मील पत्थर। सचिवालय, पंचायत कार्यालय, शराब के ठेके तक के बोर्ड कहीं भी मिल जाते हैं। बाबा के घर का पता कोई बोर्ड नहीं बताता। किसी सरकार ने आजतक यह बीड़ा नहीं उठाया।

क्यों उठाएं? क्या मिलेगा? आखिर क्या खूबी थी बाबा की? यही कि स्वतंत्रता सेनानी कांशी राम को पहाड़ी गांधी नाम पंडित नेहरू ने दिया था? यही कि उन्हें बुलबुल-ए-पहाड़ सरोजिनी नायडु ने कहा था? यही कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी से आहत बाबा ने सारी उम्र काले कपड़े पहनने का प्रण किया और स्याहपोश जरनैल कहाए? या यह कि उन्होंने 730 दिन जेल में काटे? इस पीढ़ी के लिए यह सब क्या है? कुछ होता तो बाबा का घर को संग्रहालय बनाने का संकल्प पूरा हो चुका होता। यह दशा है एक स्वतंत्रता सेनानी और साहित्यकार की।

….वातावरण शांत है। किसी पंछी की आवाज सुनाई दी है। पहचानी नहीं गई। शायद बुलबुल ही हो। एक घर आधा गिर चुका है। एक हिस्सा गिरने वाला है। यहां गिरी हुईं ईंटें दिखती हैं। कच्ची दीवारें दिखती हैं। कहीं-कहीं राजनेताओं की घोषणाएं गिरी हुई दिखती हैं। बाबा के आंगन में तुलसी मुस्तैद खड़ी है। जैसे आजादी हो। लेकिन उससे हरे नहीं, सूखे पत्ते मुंह निकाले खड़े हैं।

अचानक आवाज गूंजी, मैं विनोद शर्मा हूं। बाबा जी का पोता। शिक्षा विभाग से बतौर अधीक्षक सेवानिवृत्त हुआ हूं। साथ में पत्नी हैं। उनके हाथ में बाबा के टूटे हुए मकान के ताले की चाबी थी। यह चाबी दरअसल, इतिहास की चाबी थी। ओआन (ऐवान) यानी मुख्य कमरा या बैठक में आते ही जैसे एक ठंडक भरा स्पर्श महसूस होता है। बाबा की पतोहू कहती हैं, ‘पुराने घरों की यही खासियत है। गर्मी में ठंडे, सर्दियों में गर्म।’

दीवार पर बाबा का चित्र है। जैसे बाबा प्रश्नवाचक मुद्रा में हों, ‘ वे लोग नहीं आए जिन्हें मेरे पोते ने ततीमे काट कर दे दिए हैं कि मेरा घर सरकार ले ले?’ इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं था। बोहड़ यानी छत पर जाते ही बाबा की संदूकड़ी दिखती है। वैद्य भी थे। जब जेल या रैलियों से फुरसत मिलती, दवा भी देते थे। एक चरखा भी है। इसी पर सूत काता। जीवन का भी और स्वतंत्रता संग्राम का भी। चरखे ने जैसे उकताए हुए बुजुर्ग की तरह कहा हो, ‘अब क्या लाभ है मेरा।’

क्या यहां कोई नहीं आया? विनोद कहते हैं, ‘आए। बहुत लोग आए।’ पता चला कि पूर्व नगर नियोजन मंत्री सुधीर शर्मा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को लिखा। अफसरों में बड़ी हलचल हुई। हमने घर छोड़ दिया और नया बना लिया ताकि सरकार को घर दिया जा सके। लेकिन नई सरकार ने अब तक कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। यहां के विधायक ने सांसद अनुराग ठाकुर की तिरंगा यात्रा के दौरान यहां जलसा भी किया। सांसद ने दो स्ट्रीट लाइट भी लगवाईं। इसके अलावा कुछ नहीं हुआ।

विकास की दौड़ में पीछे रहने वाले इस महत्वपूर्ण स्थल पर कोई गंभीर नहीं है। विनोद शर्मा कहते हैं, ‘एक बार किसी ने सवाल पूछा कि बाबा तो कांग्रेसी नहीं थे? इस पर मैंने कहा कि वह स्वतंत्रता सेनानी थे। जिन्होंने आजादी के लिए अपनी बहुत सी संपदा कुर्क करवा दी और गरीबी में ही चले गए।

बाहर आकर चलने लगे तो एक सिंदूरी आम टपका पेड़ से। उसकी खुशबू वहां की वनस्पति के साथ और महकी। यकीनन यह खुशबू आठ गुणे छह की उस कोठरी में बाबा को नहीं मिलती होगी जहां अंग्रेज उन्हें कैद करते थे। सुखद यह है कि उन पर तत्कालीन सांसद नारायण चंद पराशर ने 1984 में एक डाक टिकट जारी करवाया था इंदिरा गांधी से। इधर, हिमाचल प्रदेश कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी उनकी जयंती हर साल मनाती है। इस बार यह आयोजन कांगड़ा जिले के नगरोटा बगवां में हो रहा है। बाबा के घर से लौट कर यह सवाल मथ रहा है। बाबा कांग्रेसी थे या भाजपाई? बाबा स्वतंत्रता सेनानी थे…बस!!!

एक नज़र बाबा कांशीराम की जीवनयात्रा पर:
-11 जुलाई, 1882 : पद्धयाली, डाडासीबा, कांगड़ा में जन्म
-1890 : सरस्वती देवी के साथ विवाह
-1893 : पिता लखनू राम का देहांत
-1894 : माता रेवती देवी का देहांत
-1905 : कांगड़ा का भूकंप और लाला लाजपतराय के साथ सेवाकार्य
-1906 : सरदार अजीत सिंह व सूफी अम्बा प्रसाद के साथ लाहौर में भेंट
-1911 : दिल्ली दरबार देखना और लॉर्ड हार्डिंग पर बम
-1919 : सत्याग्र्रह का हल्फ लेना
-1920 : पहली गिरफ्तारी डाडासीबा में
-1920 : पहली कविता…निक्के-निक्के माहणुआ जो…
-1921-22 : धर्मशाला में लाला लाजपतराय के साथ जेल काटी और गुरदासपुर जेल भी लाला जी के साथ काटी
-1924 : लायलपुर कांग्र्रेस इजलास में शामिल
-1927 : दूसरी गिरफ्तारी, लाहौर में जेल काटी
-1928 : कलकत्ता आल इंडिया कांग्र्रेस इजलास में शामिल
-1930 : तीसरी गिरफ्तारी, अटक जेल में काटी
-1931 : सरदार भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव को फांसी। इसके परिणामस्वरूप 23 अप्रैल, 1931 से काले कपड़े पहनना शुरू किए
-1931-32-34 : जुगलेहेड़ (ऊना), दौलतपुर (ऊना) और जनाड़ी कांफ्रेंस में सरोजनी नायडू द्वारा बुल-बुले-पहाड़ का खिताब
-1937 : गढ़दीवाला होशियारपुर कांफ्रेंस, पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा ‘पहाड़ी गांधी’ का खिताब देना
-1939 : नादौन, सुजानपुर टीहरा और हमीरपुर में कांफ्रेंस
-1939 : मंगवाल-धमेटा में कांफ्रेंस
-1940 : ज्वालामुखी-कालेश्वर महादेव कांफ्रेंस
-1943 : 15 अक्तूबर को देहांत

(लेखक दैनिक जागरण के राज्य संपादक हैं. अख़बार में प्रकाशित उनके लेख को अनुमति लेकर जुलाई 2018 में यहां प्रकाशित किया गया था, आज फिर इसे साझा किया जा रहा है।)

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